भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बिरद बिहाणा / 2 / राजस्थानी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हरी कसूमल फूल रही बनराय, म्हारी बिरध कुण कुण आवसी जी।
आसी आसी कासब जी रा रोध सूरज बिरध पधारसी जी।
देवतां ने देवतण्या यूं कह्यो जी।
पिया म्हाने रथ सिणगारो तो मैं भी बिरध पधारस्यां जी।
घर छै म्हारा सेवगड़ा रे ब्याव रिद्ध-सिद्ध करबा चालस्यां जी।
हरी कसूमल फूल रही बनराय, म्हारी बिरध कुण कुण आवसी जी।
आसी-आसी... जी रा जोध चन्द्रमा जी बिरध पधारसी जी।
भायां भायां ने देवर जिठाण्यां यों कह्या जी, पिया म्हाने अगड़ धड़ाय जी।
तो म्हे भी बिरद पधार्या जी, घर छै बेटा रो ब्याव ऐला मेला म्हे फिराजी।
हरी कसूमल फूल रही बनराय, म्हारी बिरध कुण कुण आवसी जी।
आसी आसी नानाजी रा जोध,य माम्यां बिरध पधारसी जी।
भायां भायां ने सासु बहू यों कह्यो जी, पिया म्हाने रथड़ो जुताय।
तो म्हे भी बिरध पधारस्यां जी,
घर छै म्हारे भाणेजा रो ब्याव तो माहेरो पहरावस्यां जी।