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बुझने दो शम' अ मुहब्बत की जलाते क्यूँ हो / कविता सिंह

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बुझने दो शम' अ मुहब्बत की जलाते क्यूँ हो
तीरगी हिज्र की इस दिल से मिटाते क्यूँ हो

राख़ का ढेर हूँ शोला न शरर है बाक़ी
मेरे सोये हुए जज़्बात जगाते क्यूँ हो

दश्ते दिल की ये ज़मीं अरसे से बंजर है पड़ी
अब शजर गुल के यहाँ फिर से लगाते क्यूँ हो

पर कतर देगी बुलंदी पर हवा की कैंची
कागज़ी पर लिए ऊंचाई पर जाते क्यूँ हो

नफ़रतों को न हवा दो ये मिटा देंगी तुम्हे
ख़ौफ़ खाओ की क़ज़ा को यूँ बुलाते क्यूँ हो

आग जो तुमने लगाई है जलोगे तुम भी
घर पड़ोसी का जला जश्न मनाते क्यूँ हो

यूँ सरे बज़्म वफ़ा को जो किया है रुसवा
शर्म से अपनी निगाहों को चुराते क्यूँ हो