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बूढ़े हाथों को समर्पित / दिविक रमेश

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मल्लाह

तुम सुस्ताओ किनारे

आज

ख़ुद खेनी है नाव मुझे

छू लूँ

लहरों का ताप

तड़प


मुझे

न समुद्र से खौफ़ है

न तेज़ हवाओं से


मुझे तो

दूर तक खिंची

इस सफ़ेद-नीली आँख में

ख़ुद को

परछाईं-सा देखना है


तुम किनारे

सुस्ताते हुए सैलानी-से

मुझे देखो मल्लाह

हो सके

तो आँक लो

यह पूरा दृश्य


डरो नहीं

यह समुद्र


मुझे नहीं निगलेगा

बहुतों को निगल चुका है


तो भी क्या

मुझ को तुम्हारी डीठ

इसके जबड़ों से

हर बार खींच लाएगी।