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बेरुखी / साधना जोशी

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बेरुखी असहनीय होती ह,ै
जीवन साथी की ।
जब वह अपने को फूल ओर दूसरे,
को मषीन समझ लेता है ।
अपनी इच्छाओं की पूर्ति तत्काल,
करने का हक जताता है ।
किन्तु दूसरे की इन्छओं की,
अवेहलना निरन्तर करता है,
अनजान बनकर ।

उसे जो अच्छा लगता है,
करने को तत्पर है ।
उसके साथी को भी,
कुछ अच्छा बुरा लगता है,
उससे बेपरवाह होता है ।

अपने साथी को उँगलियों पर नचाने,
की चाह हरपल रखता है ।
अपने षरीरिक मानसिक कश्टों को,
विस्तार से बयां करता है ।
साथी कुछ बोलने की चाह करे,
तो अनसुना करके चला जाता है ।

उसे याद रहता है मैं और मुझे,
अच्छा जो होता है उसको अपना,
नाम देता है ।
कठिनाइर्, बुराई अपन,े
साथी के सिर मढता है ।
लाभ की कुर्सी खुद पकड़ना चाहता है,
हानी को साथी के हाथ रखता है ।

क्या नहीं समझ पाता है वह,
हम गाड़ी के दो पहिये हैं ।
एक दूजे के बिना कठिन ह,ै
जीवन का सफर,
इसलिए,
हम मिलकर बढे तो जिन्दगी
का सफर, आषां हो जायेगा ।
खुषी-खुषी हर क्षण हम साथ
बिता पायेंगे ।