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बोध की ठिठकन- 17 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

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मेरी ग्लास भर प्यास में
एक घूँट तृप्ति भी मिले
तो मैं स्वीकारूँगा
और पूरी तृप्ति के लिए
उस छोटी सी तृप्ति को ही
सीढ़ी बना लूँगा.

मेरी प्यास के छोर
अतीत और भविष्य के गर्भ में
गड़े हैं
स्मृति और संभावना की हद तक
मैं दौड़ लगाता हूँ
प्कृति के विस्तार में
जो कुछ भी घट रहा है
अपने को फेंक कर
उसमें क्षण भर हो लेता हूँ
पर बहुत कुछ पाने की प्यास
तृप्त नहीं हो पाती.

मैं अपने आप पर
फेंक दिया जाता हूँ
अकेला, निरवलंब, प्रत्याहत
एक द्वीप की तरह.

बंधु मुझे लगता है
मैं एक द्वीप ही हूँ
जिसकी अपनी अलग गहराई
और उत्तुंगता है
उसके अपने दीए हैं
जो तुम्हारे संभाल में हैं
इस दीए की लौ
मेरे पोरों में नहीं छिटक रही
शायद इसीलिए प्यास गहरी है
किसी भी व्याज से
एक घूँट रोशनी मिले
तो उस पछ को मैं पकड़ लूँ
माँग और आलोचना में विश्राम
जरूर मिलता है
पर भटकावों के दुख
बहुत पीड़क हैं