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बोध की ठिठकन- 7 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

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खूँटियों पर टँगे
इन लोगों में
कल मैं भी शुमार था.

मुक्ति का अनुरोध लिए
ये अब भी वहीं टँगे हैं
मैं उन कतारों से
अब अलग हूँ.

जकड़न के विरोध में
प्रतिक्रिया के मेरे पंखों ने
करवटें ली थीं
ये पंख
मेरे पोरों में अनथक फड़फड़ा कर
अब उन्मन सोए पड़े हैं.

खूँटी पर टँगा मैं
बस खूँटी ही हो रहा था
मी अस्मिता
मेरी धरोहर नहीं थी.

मेरे लहू में
फंदों के कसाव का समंजन
ज्वारों को
भाटो मेंबदल दिया था
मगर आकुंचनों की सिहरन
अभी भी
मेरी आलोचना को कँपाए थी.
मेरी दबी पीड़ाएँ
मुक्त होने की आकाँक्षा में
जीवन पा रही थी.

कई बार मन किया
परती में उगी दूबों में
फुदकती जिड़ियों को बुलाऊँ
और कहूँ
इन झीने धागों को
अपनी चोचों से तोड़ कर
वे मुझे आजाद करें.

मगर उनकी विशिष्ट फुदकन ने
मुझमें संदेह उभार दिया.

फिर सोचा
चिड़ियों को बुला कर
कितना आजाद हो सकूँगा मैं
मेरी इयत्ता तो फिर भी
माँग की निर्भरता से
निर्भार नहीं हो सकेगी
फंदेबाजों की चुनौती
मेरी धमनियों में
कहीं स्वीकार पा सकेगी क्या.

मुक्ति की आकांक्षा
फिर भी क्या शेष नहीं रहेगी.

मैंने चिड़ियों को नहीं बुलाया.

मगर यह क्या
मेरे यों सोचने के दरम्यान ही
जकड़न ढीली होने लगी
और आज मैं
किसी भी पंजे की चुनौती
स्वीकार करने की स्थिति में हूँ.

यह मेरा अनुभव तो नहीं
मगर शायद
मुक्ति की भूमिका
व्यक्ति की देह-घाटी में ही
लिखी जाती है
जिनकी जड़ों की पनाह
मन की उर्वर भूमि में होती है