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भेद / जगदीश गुप्त

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भेद है जो हंस में, बक में,
सटे उलटे लटके चिमगादड़ों में —
और चतक में,
स्नेह की मृदु धड़कनों में —
और उर की रुग्ण धक-धक में,
काँच के बेडौल टुकड़ों और हीरों में,
वही अन्तर है
किसी कवि की कसी रस में बसी
नव अर्थपूरित पंक्तियों में —
औ’, अकवि की अनगढ़ी
रसहीन बेमानी लकीरों में ।