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भोग स्वीकार / ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

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मैं अपने हिस्से के सुख-दुख भोग चुका हूँ

अब इन भोगों पर मेरा अधिकार नहीं है

और दूसरों के हिस्से का एक घूँट भी

अमृत हो या विष, मुझको स्वीकार नहीं है !


प्रथम प्रहर ममता के सौ संवाद दे गया

ठुमक-ठुमक कर आँगन का आह्लाद दे गया

प्रहर दूसरा प्यालों का उन्माद दे गया

चढ़ता सूरज जीवन का हर स्वाद दे गया

अब जब अंतिम प्रहर माँगता है कुछ मुझ से

मैं `ना' कर दूँ, यह तो शिष्टाचार नहीं है

अमृत हो या विष, मुझको स्वीकार नहीं है !


प्यास लगी तो प्यास बुझाते पनघट पाये

पनघट पर घूँघट में रस के दो घट पाये

एक समय इच्छाओं ने अक्षयवट पाये

और कभी अभिलाषाओं ने मरघट पाये

अब जब लाभ-हानि, सुख-दुख सब देख चुका हूँ

कैसे कह दूँ, यह जीवन व्यापार नहीं है

अमृत हो या विष, मुझको स्वीकार नहीं है !


तट से देखी धार, धार में बहती नैया

और जूझते पतवारों से चतुर खिवैया

चल, चलता ही रह जब तक दम में दम भैया

श्रम के आगे पस्त नदी, नद, ताल, तलैया

पर जब तट ने स्वयं धकेला मुझे धार में

मेरी ख़ातिर यह वह कोई पार नहीं है

अमृत हो या विष, मुझको स्वीकार नहीं है !


एक लाल सा शेष कि अब कुछ तो कर जाऊँ

बहुत मूल खाया, उसका कुछ ब्याज चुकाऊँ

अपने अर्जित अनुभव दोनों हाथ लुटाऊँ

नये राहगीरों के पथ में दीप जलाऊँ

यही एक उपयोग मुझे लगता इस तन का

वरना अब जीवन में कोई सार नहीं है

अमृत हो या विष, मुझको स्वीकार नहीं है !