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मंच से कंचन / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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डरता हूँ इसलिए तुम्हारा
वंदन करता हूँ।
सच तो यह कि नहीं मेरा कुछ
भक्ति-भाव तुम में,
मिलना मुझे न, रामेश्वरम्, न
हरिद्वार-तुम में।
चंबल की घाटी की माटी
का तुम तिलक किए
डाल गले साँपों की माला
शिव-सा रूप किए।
फिर भी बना पुजारी, बैठा
चंदन घिसता हूँ।
डरता हूँ, इसलिए तुम्हारा
वंदन करता हूँ।1।

भरा कोष अपना रत्नों से
बड़े प्रयत्नों से;
रक्खा जा समुद्र-तल के
लॉकर में जतनों से।
वरद हस्त था प्राप्त तुम्हारा
उस सब संचय में,
था मालूम कि बन अगस्त्य ऋषि
पी सकते क्षण में।
इसीलिए सह हिमगिरि, सागर-
मंथन बनता हूँ।
डरता हूँ इसलिए तुम्हारा
वंदन करता हूँ।2।

देखा खूब तुम्हें अपना नव-
नव नाटक रचते;
देख खूब तुम्हें उसका-
अभिनय सुंदर करते।
परदे के भीतर-बाहर की
असल-नकल देखी;
बीच खिंची चीनी दीवारी
रेखा भी देखी।
फिर भी तुम्हें मंच से खालिस
कंचन कहता हूँ।
डरता हूँ इसलिए तुम्हारा
वंदन करता हूँ।3।

16.5.85