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मजदूर औरतें / चित्रा पंवार

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घास काटती मजदूर औरतें
मुक्त वाक् से हँसती हुई
खेतों को सहलाती हवा के साथ
मिला रही हैं तान से तान
स्वछंद घूमती पीठ पर लिए
हरी–हरी घास
माथे पर टपकते पसीने में दमकता हुआ सूरज
सुना रहा है कहानी स्वावलंबन की
काट कर फेंक रही हैं
घास के संग
मन के बंधन, पीड़ा की गाँठ
विलासिता के ख़्वाब
और पैरो में पड़ी बेड़ियाँ भी
आजादी की मशाल थामे
कर्तव्य पथ पर
बढ़ रही हैं बेखौफ
ये क्रांतिकारी औरतें
हाथ की हँसिया संदेशा है इस बात की
मात्र फल, सब्जी नहीं काटते ये हाथ
अपितु समर्थ हैं काट फेंकने में
बदन पर रेंगते जहरीले नाग
झूठे आडंबर, रीति रिवाज
अपनी ओर उठती ऐसी–वैसी उंगलियाँ भी
ये बेबाक औरतें
सहती नहीं हैं बात बेबात पड़ती मार
सुनती नहीं है ताने
कि खाती हो मेरी कमाई घर में बैठे–बैठे
जनती हैं अपने वजूद पर बेटियाँ
नहीं मरने देती हैं उन्हें गर्भ में
ये खुद्दार औरतें
अलसुबह तज कर नींद, सुकून, आराम
निकल पड़ी हैं लेकर हंसिया
खेत–खेत, मेड़–मेड़ काटने घास
चुलबुलाती, खिलखिलाती
भोर की चिड़ियों-सी चहचहाती
ये मजबूत औरतें