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मन करता है / संतोष श्रीवास्तव

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जिंदगी की पहेली से
जूझते ...
जब कभी डूबता सूरज देखती हूँ
लाल दीवारें हैं जिसकी
सुरमई, सलेटी, मटमैली-सी
बुर्जियाँ है जिसकी
 
मन करता है
मैं भी जा सकूं लाल दीवारों में
खुलते दरवाजे तक
जहाँ मैं उतार सकूं
अपने दर्द को जूतों की तरह
अपने रतजगों को
खूंटी पर टांग सकूं
कपड़ों की तरह

तब मैं
धरती, आकाश, पाताल तक
हवा कि तरह हल्की हो
बहती रह सकूं
थाम सकूं बीहड़ के सन्नाटे
जज़्ब हो जाऊँ सोखते में
गीली सम्वेदनाओं सहित

लेकिन ऐसा हो नहीं पाता
पहेली के खांचे मजबूत हैं
और ज़िन्दगी के इम्तिहान बाकी