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मरु और खेत / अज्ञेय

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मरु बोला : हाय यह हास्यास्पद ममता!
ओ रे खेत, किस हेतु यह यत्न, यह उथल-पुथल,
यह-कह ही डालूँ-आडम्बर?
देखना-जब बहेगी लू, जब पड़ेगा पाला,
जब आएगी बर्फ की बर्छियों से हाड़ों को भेदती-सी
उत्तर की निष्ठुर हवा,
झुलसेंगे, पाले से मरेंगे तुम्हारे पात-पात अंकुर,
तब कैसे दर्द होगा!
मेरी-मुझ अचंचल को देखो; मेरी यह सीख है :
ममता की सर्वदु:ख-मूल है
बीज मात्र वेदना का बीज है!

हँसा खेत : मरु काका, ठीक है। होगा वही
लू बहेगी, पाला भी पड़ेगा-दु:ख होगा ही।
किन्तु जब मेरी छाती फोड़ कर अंकुर एक फूटेगा
और भोली गर्व-भरी आस्था से निहारेगा,
तब-उस एक मात्र क्षण में-किन्तु काका, आप से क्या कहूँ और...
नव-सर्जन में जो अपने को होम कर होते हैं आनन्दमग्न
उन की तो दृष्टि और होती है!

इलाहाबाद-दिल्ली (रेल में), 18 मार्च, 1954