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मरे हुए लोग / श्रीप्रकाश शुक्ल

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मरे हए लोगों के इस शहर में
हर आदमी अपने पुर्नजन्म को लेकर परेशान है

मरे हुए लोग
मरे हुए लोगों में शामिल नहीं हैं
उन्हें अपने मरने से परहेज है
जबकि न जाने कितने पहले वे मर चुके हैं

मरे हुए लोगों के अपने झोले हैं
अपनी टंगारी और
अपनी तगाड़ी

सिर से पाँव तक उनके पास सूचनायें हैं
और वे खुद एक सूचना हैं
हमारे समय में डाकिये की तरह

कील जब कभी चुभती है
उनके चेहरों पर खिंचता है एक तनाव
उसे ढीला करने की वे करते हैं कोशिश
और थोड़ी देर बाद
खचिया भर मड़िया में उतराने लगते हैं

मरे हुए लोग
जीने की आशा लिए
लगातार मरते जा रहे हैं
अपनी सारी बरक्कत के बावजूद
इस पवित्र शहर में !


रचनाकाल : 12.01.2008