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मलयाली स्त्रियाँ / प्रेमचन्द गांधी

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दो जून भात की तलाश में
अपना घर-परिवार और
हरा-भरा संसार छोड़कर
रेत के धोरों तक आती हैं
समुद्र की बेटियाँ

भाषाई झगड़ों को भूलकर
बड़ी मेहनत से सीखती हैं हिन्दी
जैसे सीखी थी कभी अंग्रेज़ी
जो यहाँ कम काम आती है

कुछ दिन उन्हें परेशान करती हैं
धूल-भरी आँधियाँ और तपती लू
धीरे-धीरे वे समझ लेती हैं
रेत के समंदर को हिन्द महासागर

चिपरिचित सागर गर्जना से
हजारों कोस दूर वे
कुशल ग़ोताख़ोर की तरह
चुनती रहती हैं
उम्मीद की सीपियाँ
जिनमें से निकलेंगे वे मोती
जिनसे भरा जा सकेगा
मरुथल से सागर तक का फ़ासला
और दोनों वक्त पेट

ये श्यामवर्णी समुद्र की बेटियाँ
अपने केशों में बसी नारियल की गंध से
सुवासित करती रहती हैं
रेगिस्तान की तपती जलवायु
हर पल सजाती रहती हैं
अपनी मेहनत से नखलिस्तान