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महफ़िलों से महलों से गांव के सिवानों तक / कुमार नयन

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महफ़िलों से महलों से गांव के सिवानों तक
ले चलो ग़ज़ल को अब खेत की मचानों तक।

पूछने लगे हैं अब गांव रहनुमाओं से
क्यों न कुछ पहुंच पाता मुल्क के किसानों तक।

उसको क्या पता होगा मर्म दिल की दुनिया का
जो नहीं पहुंच पाया दर्द के ठिकानों तक।

भूख की अदालत में हों गवाहियां जब भी
बात तो पहुंचनी है बाजरे के दानों तक।

गोलियाँ चलाता है कोई मेरे अंदर से
जब कभी पहुंचता हूँ सोच के दहानों तक।

लाज़िमी है हक़ की इक जंग फैसलाकुन अब
कह रहे हैं चीख़ों में सुन लो बेज़बानों तक।