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महानगरों के अजनबी / संध्या पेडणेकर

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एक छत के नीचे रहते हैं
और एक दूसरे से अपरिचित
अजनबियत की बुनियाद पर बनी
रिश्तों की इमारत
बहार से भव्य, सुन्दर, जगमग
अन्दर से दर ओ दीवार उतने ही सुंदर
लेकिन इनमें हक़ की आत्मा नहीं है
लोग यहाँ अपनों से भी
तकल्लुफ से पेश आते हैं
बाहरवालों से लेकिन
बेतकल्लुफी का स्वांग रचाते हैं

यहाँ के सुख निजी हैं
दुःख भी निजी हैं
हंसी निजी है और ख़ुशी भी
आश्चर्य निजी है और हताशा भी निजी है
डर यहाँ निजी हैं और
डर से नजात पाने के तरीके भी निजी हैं
साझा यहाँ सिर्फ शरीर सम्बन्ध हैं
मजबूरी के
कुदरत ने ही यह व्यवस्था की है
वरना
इस मामले में भी निजीपन को वरीयता देना
शहरी अजनबियत को भाता है
बच्चे साझा हैं पर जिम्मेदारी निजी है
बड़े होने के बाद बच्चे भी अजनबी हैं
राह निजी है, सफ़र निजी है और मंझिल भी निजी है.

और कुछ जरूरतें हैं, साझा
खाना, नहाना, नित्य कर्म से निबटना
इनके लिए सहूलियत की जगह हो इसलिए
घर हैं
पर घर भी चूंकि मिल्कियत है
उसमें साझेदारी नहीं होती
वह नातों में होती है, और शहर
नातों-रिश्तों के लिए अजनबी है.

यहाँ कि जमीन, जमीन पर बने मकान, मकान कि चाट
यहाँ तक कि उनके ऊपर घिरा आसमान भी
टुकड़ों में बँटा है निजीपन के
अपने अपने टुकड़ों में सिमटकर पलते जीन
एक दूसरे से हैं अजनबी

यहाँ के बच्चे माँ-बाप को तकलीफ में नहीं डाल सकते
माँ-बाप बच्चों से उम्मीद नहीं रख सकते
सबकी अपनी अपनी राह है
अपनी अपनी मंजिलें हैं
जो छूट जाए वह अपनी जाने
आगे बढ़ने का ज़माना है!!!