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माँ / नरेश मेहन

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समुद्र
से भी गहरी
वृक्ष से भी
विशाल घोंसलों को
संजोये बेठी है मां।

रूई से भी नर्म
लोहे से भी सख्त
बादलो सी उदार
पर्वत सी अडिग है मां।

कभी जरा कडवी
कभी बहुत मीठी
आइसक्रीम सी है मां।

दूध,दही,आटा
पुदीने की चटनी है मां
झाडू पौचा करती
एक नदी सी है मां।

धरती से
उठने वाली
एक सौंधी सी
गंध है मां।

कभी बहन
कभी पत्नि
अब दादी है मां।

कभी थी
पर्वत सी
अब रेत के टीले
की तरह
ढह रही है मां।

अब नहीं
फुरसत किसी को
कि पूछे
कहां है मां।

पूछो कोई
सफेद बालों की
जिल्द में
चहरे की झुर्रियों में
कहानियों की
पाण्डुलिपि लिए
क्यों बैठी है मां।