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मानवता से प्यार करो / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

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देश हुआ स्वाधीन किन्तु हो सकी दीनता दूर नहीं।
सुख से सम्मानित हो पाया भारत का मजदूर नहीं॥

देख रहा हूँ धधक रही विकराल विषमता ज्वाल यहाँ।
भूखे-नंगे श्रमिक वर्ग के शोषित नर-कंकाल यहाँ॥

झाँक रही निष्ठुर दानवता आज महल के द्वारों से।
चीख रही बेबस मानवता वंचित हो अधिकारों से॥

कृषक, सदा से सृष्टि-चक्र यह जिनके बल पर चलता है।
जिनके द्वारा अखिल विश्व का पेट निरन्तर पलता है॥

जो दाता है अन्न राशि के प्राणिमात्र के त्राता हैं।
सच पूछो तो वही धरा के सच्चे भाग्य-विधाता हैं॥

श्रमिक, जिन्हें दो क्षण को भी मिलता श्रम से अवकाश नहीं।
व्यथा भार से दबे हुए ले पाते सुख की साँस नहीं॥

ताजमहल से नभ चुम्बी जो भवन यहाँ दिखलाते हैं।
उनके श्रम की गौरव-गाथा जगती को बतलाते हैं॥

स्वर्ण उगलते उनके ही श्रम से पर्वत-पाषाण सदा।
उनके ही भुजबल से होते जग में नवनिर्माणा सदा॥

पूछो उनकी कष्ट-कथा सरिता की तेज़ रवानी से।
बांध भाखड़ा से या उस नांगल के बहते पानी से॥

सींच लहू से जो अपने मरु नन्दन करते रहते।
जनजीवन के उपवन में सुख की सुवास भरते रहते॥

आज उन्हीं की झोपड़ियों में निर्धनता का वास हुआ।
भार हुआ है दुखमय जीवन सभी सुखों का हा्रस हुआ॥

विश्व भरण-पोषण करते जो, भूखे आज स्वयं सोते।
पूंजीपतियों के छल के आखेट निरन्तर ही होते॥

जगमग करती दीवाली जब महलों में मुस्काती है।
घिरी अमा से उनकी कुटिया रोती है चिल्लाती है॥

क्या बापू के रामराज्य की कहो यही परिभाषा है।
शान्त हो सकी शोषक दल की अभी न घोर पिपासा है॥

जब तक यहाँ बहेगी निर्मल साम्य-सुधा की धार नहीं।
शोषित मानव को मिल पाएगा उसका अधिकार नहीं॥

जब तक इन मजदूर किसानों का होगा सम्मान नहीं।
सच कहता हूँ होगा तब तक भारत का उत्थान नहीं॥

रामराज्य के ठेकेदारों! कुछ तो सोच-विचार करो।
भला इसी में है स्वदेश का मानवता से प्यार करो॥