भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मानव / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मानव अभागे!
जड़वत्, अचेतन मानव अभागे!
हँसते सहस्रांशु घन में पधारे,
हँसते हरीरे वन-फूल प्यारे,
विषण्ण, श्रीहीन मुख क्यों तुम्हार?
तू क्यों निदारे? मानव अभागे!

क्यों तू बना रे?
विवर्ण, कंकाल तू क्यों बना रे?
फल-फूल-मेवे पुष्कल धरा पर,
घी-दूध-द्राक्षा सब कुछ धरा पर,
मधु, अन्न केसर सब कुछ धरा पर,
कंगाल, भिक्षुक फिर क्यों बना रे?

दुख में नहीं हो!
दिग्मूढ़, उद्विग्न दुख में नहीं हो!
अधीर, उद्भ्रान्त दुख में नहीं हो!
म्रियमाण, पाण्डुर दुख में नहीं हो!
निर्वीर्य, कायर दुख में नहीं हो!
भय में नहीं हो!

चिन्ता नहीं हो!
टूटे बवण्डर, चिन्ता नहीं हो!
गरजे समुन्दर, चिन्ता नहीं हो!
बरसे अंगारे, चिन्ता नहीं हो!
हिम्मत न ढीली तेरी कभी हो!
चिन्ता नहीं हो!

तू आज जागे!
सोए युगों से तू आज जागे!
सुवर्ण के ताज पर काल जागे!
आग्नेयलोचन नटराज जागे!
जैसे गुफा से वनराज जागे!
तू आज जागे!

निर्माण तुम हो!
संहार तुम हो, निर्माण तुम हो!
प्रचण्ड गाण्डीव सन्धान तुम हो!
ममतार्द्र तुम हो, पाषाण तुम हो!
नरसिंह वामन भगवान तुम हो!
निर्वाण तुम हो!

ईश्वर तुम्हारा!
मिथ्या सहारा, ईश्वर तुम्हारा!
असमर्थता की अनुप्रेरणा जो,
श्रुति-मान्यता की जड़-कल्पना जो,
अज्ञानता की अभ्यर्थना जो,
चिथड़ा पुराना, ईश्वर तुम्हारा!

(रचना-काल: जनवरी, 1947। ‘विशाल भारत’, फरवरी 1947, में प्रकाशित।)