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मिलन तो था लकीरों में मग़र माँगा विरह मैंने / सुरेखा कादियान ‘सृजना’

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मिलन तो था लकीरों में मग़र माँगा विरह मैंने
उसी के प्यार को उस बिन जिया कुछ इस तरह मैंने

जिताया है कभी ख़ुद को कलम मुंसिफ़ से छीनी है
कभी की जीत कर भी हार की ख़ातिर ज़िरह मैंने

चला जाये न वो मुझको भुला कर यूँ फ़साने से
कभी खुलने न दी इस ही लिए तो ये गिरह मैंने

कभी हँसकर, कभी रोकर, कभी खोकर ज़माने में
भुलाया है बहाने से तुझे तेरी तरह मैंने

सुहाना था सफ़र मेरा सदा मैं खिलखिलाती थी
मग़र फिर प्यार कर डाला किया जीवन दुरह मैंने