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मुंतज़िर / राहुल कुमार 'देवव्रत'

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एक ही चीज से भरा रहता हूँ
बहता आता मीठा पानी
बदल लेता है रास्ता
मेरी पोखर के एकदम नजदीक से

नाकाम कोशिश से पैदा हुई खीझ
मन के अंधकूप से बाहर नहीं निकल पाती मेरे

अच्छा ही तो है कि खाली नहीं रहता

नियति के निर्धारित लक्ष्य का चाकर
दो रातों के बीच पिसता रहता हूँ

चूड़ हुए एहसासों को बीनने
गाहे-गाहे आती है सुबह आंचल फैलाए

रंजीदा मुदासरत
और भी क्या-क्या बैठी है मेरे सिरहाने

हवा में दर्द छोड़ गई है
कुछ इस तरह जाते का निशान
कि सोता तो हूँ
किंतु सो नहीं पाता इन दिनों

मकान चाहे जिसका हो
नींव का कारीगर कम हैरां नहीं होता
ईमारत के जख्म देखकर

अस्पताल से लौटते तुम खुश क्यों नहीं हो ?

आओ ! ...लेट जाओ
तेल सने हाथेलियों की रगड़
जमे हुए रक्त के प्रवाह को रास्ता देती है
ताखे पर रखी जो है छोटी-सी डिबिया
मैं और हवा दोनों ने स्पर्श किये हैं एकसाथ
पर तुम चंगी नहीं हो पाओगी इस तरह
....तुम्हारी मांसपेशियाँ नहीं होती ना