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मुंतशिर ज़ेहन की सोचों को इकट्ठा कर दो / 'क़ैसर'-उल जाफ़री

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मुंतशिर ज़ेहन की सोचों को इकट्ठा कर दो
तुम जो आ जाओ तो शायद मुझे तनहा कर दो

दर-ओ-दीवार पे पढ़ता रहूँ नौहा कल का
इस उजाले से तो बेहतर है अँधेरा कर दो

ऐ मिरे गम की चटानो कभी मिल कर टूटो
इस क़दर ज़ोर से चीखो मुझे बहरा कर दो

जा रहे हो तो मिरे ख़्वाब भी लेते आओ
दिल उजाड़ा है तो आँखों को भी सहरा कर दो

कुछ नहीं है तो ये पिंदार-ए-जुनूँ है 'क़ैसर'
तुम को मिल जाए गिरेबाँ तो तमाशा कर दो