भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुझको ही डाँटा / दिनेश चमोला ‘शैलेश’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दीदी भूली सैर-सपाटा
सबुह-सुबह ही
दही-परांठा,
खाकर करती
आटा-बाटा।
कोई नहीं पूछता मेरे
मारा दीदी ने क्यों चाँटा?

रोज सवेरे
दौड़ी आती,
मुँह बिचकाकर
मुझे खिजाती।
कितनी बार शिकायत की पर
कभी किसी ने उसको डांटा?

सोते-सोते
मुझे जगाती,
‘कुर्र’ कान की
काना-बाती।
मैं बोली क्यों करती ऐसा?
पर उलटा मुझको ही डाँटा!