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मुझे तुम्हारी फ़िक्र नहीं / धीरेन्द्र सिंह काफ़िर

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अश्क उतारे हैं पलकों से
कई शबें गुज़र गईं
अपने जिस्म के एक गोसे में
तुम्हारे नाम के रोगन की एक गुल्लक
बंद है तकमील होकर

खुलती है तो आँखें सुर्ख हो जाती हैं
सुबह के शिफ़क के जैसे

कई रातों से ये सोई नहीं हैं
सुबह की एक झपकी में

तुम कहते हो...
मुझे तुम्हारी फ़िक्र नहीं

किरदार सारे बुझ गए हैं
मेरी नज्मों के
बस इन दिनों तुम्हारे तसव्वुर में
तहलील हूँ मैं
तुम्हारा त-आकुब करता गया
तुम धुएँ से चटकते गए

जब मैं थककर आग बन गया
तुम कहते हो...
मुझे तुम्हारी फ़िक्र नहीं