भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुहब्बत का दरवाजा / हरकीरत हीर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हर किसी को यही लगा था
कि कहानी खत्म हो गई
और किस्सा खत्म हो गया
पर कहानी खत्म नहीं हुई थी
शिखर पर पहुँच कर ढलान की ओर
चल पड़ी थी
जैसे कोई तरल पदार्थ चल पड़ता है
उस बहाव को न वह रोक पाई थी
न कोई और
हाँ ! पर मुहब्बत उस कहानी के साथ -साथ
चलती रही थी

कहानी थी इक दरवाजे की
जो मुहब्बत का दरवाजा भी था
और दर्द का भी

जब मुहब्बत ने सांकल खटखटाई थी
वह हथेली की राख़ में गुलाब उगाने लगी थी
वह अँधेरी रातों में नज़में लिखती
इन नज़मों में
तारों की छाव थी
बादलों की हँसी
सपनों की खिलखिलाहट
खतों के सुनहरे अक्षर
अनलिखे गीतों के सुर
ख्यालों की मुस्कुराहटें
और सफ़हों पर बिखरे थे
तमाम खूबसूरत हर्फ़

पर उस दरवाजे के बीच
एक और दरवाजा था
जिसकी ज़ंज़ीर से उसका एक पैर बंधा था
वह मुहब्बत के सारे अक्षर सफ़हे पर लिख
दरवाजे के नीचे से सरका देती
पर कागजों पर कभी फूल नहीं खिलते
इक दिन हवा का एक बुल्ला
अलविदा का पत्ता उठा लाया
दर्द में धुंध के पहाड़ सिसकने लगे
उस दिन खूब जमकर बारिश हुई
वह तड़प कर पूछती यह किस मौसम की बारिश है
हादसे काँप उठते

बेशक मुहब्बत ने दरवाजा बंद कर लिया था
पर उसके पास अभी भी वो नज़में ज़िंदा हैं
वह उन्हें सीने से लगा पढ़ती भी है
गुनगुनाती भी है