भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मृत्यु / जीवनानंद दास / मीता दास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अस्थियों के भीतर जिन लोगों को ठण्ड का बोध होता है
माघ की रात में... वे लोग दोपहर में शहर की ग्रिल पकड़कर
मृत्यु का अनुभव करते हैं
बेहद गहरे और अति उन्नत रूप में
रूपसी चीन्हती है मरण को
दर्पण के उस पार ठीक पारद के समान ही निरुत्तर रहता है
या परिपूर्ण रहता है।

एक-आध दैत्याकार आकृति दिख जाती है जो
जनता को चलाते हैं शाम की बड़ी-बड़ी सभाओं में,
जबरदस्त विश्वास के बीच... स्थिर है,
वे जानते हैं यह मृत्यु नहीं है... फिर भी वे उनके मुग्ध-चकित
रोशनी से परिपूर्ण फ़ोटोग्राफ़ से
निकल ही आते हैं डरे हुए
अपनी ग्लानिरहित हालत देख कर ।