भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरा तारा / अज्ञेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ऐसे ही थे मेघ क्वाँर के,
यही चाँद कहता था मुझ को आँख मार के :
अजी तुम्हारा मैं हूँ साथी-
जीवन-भर इस धुली चाँदनी में तुम खेला करना खेल प्यार के!

वही मेघ हैं, साँझ क्वाँर की,
वही चाँद, ध्वनि वैसी दूर पार की :
केवल मैं ही चिर-संगी हूँ, क्यों कि अकेला हूँ उतना ही
अपनी हिम-शीतल दुनिया में, जितने तुम उस दुनिया में हो
महाशून्य आकाश हमारा पथ है : छोड़ो चिन्ता वार-पार की!

उस दिन वह छोटा-सा तारा
वत्सल था-पर चुप था।
आज वही चुप है, पर वत्सल।
स्मित, यद्यपि बेचारा,
मेरा तारा।

बख्तियारपुर (कलकत्ता जाते हुए), 31 अक्टूबर, 1949