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मेरी प्यास वो यूँ बुझाने चले हैं / पुरुषोत्तम 'यक़ीन'

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मेरी प्यास वो यूँ बुझाने चले हैं
समुन्दर का पानी पिलाने चले हैं

उन्हें कैसे महबूब अपना समझ लें
निवाला जो मुँह का छुड़ाने चले हैं

जिन्हें ज़िंदगी ने निरन्तर रुलाया
वो दिवाने जग को हँसाने चले हैं

मज़ाहिब के हल यूँ दिलों पे चला कर
वो अब फ़स्ल कैसी उगाने चले हैं

उजड़ ही गई हम ग़रीबों की बस्ती
नगर ख़ूबसूरत बनाने चले हैं

परिन्दों के पर नोच कर अब दरिन्दे
उड़ानों के सपने दिखाने चले हैं

ज़माने ने अक्सर भुलाया है उन को
ज़माने के जिन से फ़साने चले हैं

हुए बदगुमाँ क्यूँ 'यक़ीन' आज इतने
हमें वो हमीं से लड़ाने चले हैं