भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैंने देखा एक बूँद / अज्ञेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैंने देखा
एक बूँद सहसा
उछली सागर के झाग से
रँगी गई क्षण भर
ढलते सूरज की आग से।

मुझको दीख गया :
सूने विराट् के सम्मुख
हर आलोक-छुआ अपनापन
है उन्मोचन
नश्वरता के दाग से!

नयी दिल्ली, 5 मार्च, 1958