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मैंने देखा है / ऋषभ देव शर्मा

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मैंने तुम्हारा प्यार देखा है
बहुत रूपों में

मैंने देखी है तुम्हारी सौम्यता
और स्नान किया है चाँदनी में,
महसूस किया है
रोमों की जड़ों में
रस का संचरण
और डूबता चला गया हूँ
गहरी झील की शांति में
 
मैंने देखी है तुम्हारी उग्रता
और पिघल गया हूँ ज्वालामुखी में,
महसूस किया है
रोमकूपों को
तेजाब से भर उठते हुए
और गिरता चला गया हूँ
भीषण वैतरणी की यंत्रणा में
 
मैंने देखी है तुम्हारी हँसी
और चूमा है गुड़हल के गाल को,
महसूस किया है
होठों और हथेलियों में
कंपन और पसीना
और तिरता चला गया हूँ
इंद्रधनु की सतरंगी नौका में
 
मैंने देखी है तुम्हारी उदासी
और चुभो लिया है गुलाब के काँटे को,
महसूस किया है
शिराओं में और धमनियों में
अवसाद और आतंक
और फँसता चला गया हूँ
जीवभक्षी पिचर प्लांट के जबड़ों में
 
मैंने देखा है
तुम्हारे जबड़ों का कसाव,
मैंने देखा है
तुम्हारे निचले होठ का फड़फड़ाना,
मैंने देखा है
तुम्हारे गालों का फूल जाना,
मैंने देखा है
तुम्हारी आँखों का सुलग उठाना,
मैंने देखा है
तुम्हारा पाँव पटक कर चलना,
मैंने देखा है
तुम्हारा दीवारों से सिर टकराना
और हर बार
लहूलुहान हुआ हूँ
में भी तुम्हारे साथ
और महसूस किया है
तुम्हारी
असीम घृणा के फैलाव को

लेकिन दोस्त !
मैंने खूब टटोल कर देखा
मुझे अपने भीतर नहीं दिखी
तुम्हारी वह घृणा,
मेरे निकट
तुम्हारी तमाम घृणा झूठ है

मैंने देखा है
तुम्हारी भुजाओं का कसाव भी,
मैंने देखा है
तुम्हारी पेशियों का फड़कना भी,
मैंने देखा है
तुम्हारे गालों पर बिजली के फूलों का खिलना भी,
मैंने देखा है
तुम्हारी आँखों में भक्ति का उन्माद भी,
मैंने देखा है
तुम्हारे चरणों में नृत्य का उल्लास भी,
मैंने देखा है
तुम्हारे माथे को अपने होंठो के समीप आते हुए भी
 
और महसूसा है हर बार
तुम्हारे अर्पण में
अपने अर्पण की पूर्णता को !

प्रेम बना रहे !!