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मैं अगर रोने लगूँ रूतबा-ए-वाला बढ़ जाए / मिर्ज़ा रज़ा 'बर्क़'

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मैं अगर रोने लगूँ रूतबा-ए-वाला बढ़ जाए
पानी देने से निहाल-ए-क़द-ए-बाला बढ़ जाए

जोश-ए-वहशत यही कहता है निहायत कम है
दो जहाँ से भी अगर वसुअत-ए-सहरा बढ़ जाए

क़ुमरियाँ देख के गुल-ज़ार में धोका खाएँ
तौक़ मिन्नत का जो ऐ सर्व-ए-तमन्ना बढ़ जाए

हाथ पर हाथ अगर मार के दौड़ूँ बाहम
राह-ए-उल्फ़त में क़दम कै़स से मेरा बढ़ जाए

दाग़ पर दाग़ से ऐ ‘बर्क़’ मुझे राहत है
दर्द कम हो तो शब-ए-हिज्र में ईज़ा बढ़ जाए