भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं अपनी होना चाहती हूं / जया जादवानी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नहीं, मैं तुम्हारे प्याले से नहीं पियूंगी
चाहे प्यास घोंट दे मेरा गला
और मैं बिखर जाऊं जर्रा-जर्रा
मैं नहीं उगूंगी तुम्हारी जमीन पर
मुझे नहीं चाहिए
तुमसे छल कर आती
हवा और धूप
मैंने सुना है उनकी नींदों का रोना
जिन्होंने अपने सपने
गिरवी रख दिये हैं
और अब
उनकी सांसों से
मरे हुए सपनों की गंध आती है
मुझे चाहिए अपनी नींद
भूख और प्यास
मुझे चाहिए अपने आटे की
गुंथी हुई रोटी
मैं अपने जिस्म पर
अपनी इच्छाओं की रोटी
सेंकना चाहती हूं
अपनी मर्जी से
अपने लिये उगना
अपने लिये झरना चाहती हूं
मुझे नहीं करनी वफादारी
तुम्हारी रोटियांे की
रखवाली तुम्हारे घरों की
तुम्हारी मिट्टी की, तुम्हारी जड़ों की
जिनसे आती है मेरे
पसीने और लहू की बू
मैं नकारती हूं वह वृक्ष
जिसके फूलों पर कोई इख्तियार नहीं मेरा
मैं छोड़ती हूं तुम्ळें
तुम्हारे फैलाए समस्त जाल के साथ
मैं होना चाहती हूं
अपनी गंध से परिपूर्ण अपने लिये
मैं अपना आकाश
अपनी धरती चाहती हूं
मैं अपनी होना चाहती हूं!