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मैं इक इसरार था कोई भी न समझा मुझको / ज़ाहिद अबरोल

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मैं इक इसरार<ref>भेद</ref> था कोई भी न समझा मुझको
देखने को तो हर इक आंख ने देखा मुझको

यूं तो जीने को जिए जाता हूं इक मुद्दत से
कैसे जीना है यह ढब फिर भी न आया मुझको

मैं मसीहा की तरह हक़<ref>यथार्थ</ref> का परस्तार<ref>पूजने वाला,पूजक, पुजारी</ref> न था
जाने क्यूं लोगों ने फिर दार पे खैंचा मुझको

मौत आई कि ग़म-ए-ज़ीस्त<ref>ज़िंदगी के ग़म</ref> के सहराओं में
मिल गया एक घने पेड़ का साया मुझको

गर्दिश-ए-वक़्त<ref>कालचक्र</ref> ने आंखों को जिला<ref>प्रभा,चमक</ref> बख़्शी है
वरना यह चेहरे भला कौन दिखाता मुझको

नाम ‘ज़ाहिद’<ref>संयमी</ref> है तबीअत<ref>रूचि, स्वभाव</ref>है मगर रिन्दानः<ref>मतवालों जैसी</ref>
नाम बदला न तबीअत ने ही छोड़ा मुझको

शब्दार्थ
<references/>