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मैं उसको व्याख्यान कहूँगा / लाखन सिंह भदौरिया

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अनबोले चेतना जगाये, मैं उसको व्याख्यान कहूँगा।

शत-शत उपदेशों में बोलें, मुख की शान्तवना मुद्रायें,
उपनिषदों का अर्थ बतायें, आनन पर छिटकी आभायें,

जन-जन जिससे कदम मिलाये, मैं उसको अभियान कहूँगा।
अनबोले चेतना जगाये, मैं उसको व्याख्यान कहूँगा।

जग का कोलाहल कुछ कम हो, शान्त रहे इससे वाणी से,
मानवता का रूप निखारे, प्रेम-साधना कल्याणी से,

मैं ऐसे साधक शिल्पी के जीवन को वरदान कहूँगा।
अनबोले चेतना जगाये, मैं उसको व्याख्यान कहूँगा।

देने में पाने के सुख-सी, जो अनुभूति लिये प्राणों में,
यश-लिप्सा उत्सर्ग कर सके, कर्म निरत रह सुनसानों में,

जीवन रचें ऋचायें नूतन, उसका लक्ष्य महान कहूँगा।
अनबोले चेतना जगाये, मैं उसको व्याख्यान कहूँगा।

अँधियारे में दीप शिखा सा, जगे समर्पित जो तन मन से,
झंझा को दे खुली-चुनौती, जो अपने जलते जीवन से,

उसका उदय धरा के ऊपर हँसता हुआ विहान कहूँगा।
अनबोले चेतना जगाये, मैं उसको व्याख्यान कहूँगा।

जिसका अपनापन न कर सके किसी पराये की परिभाषा,
आत्म तृप्त हो शान्त कर सके जो जगती की विकल पिपासा,

मुस्कानें मधु बाटें जिसकी, मैं उसको इन्सान कहूँगा।
अनबोले चेतना जगाये, मैं उसको व्याख्यान कहूँगा।