भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं एक बात कहूँ गर उसे बुरा न लगे / शैलेश ज़ैदी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं एक बात कहूँ गर उसे बुरा न लगे।
सिवाय उसके मुझे कोई दिलरुबा न लगे॥

ख़ता करे भी तो उसकी ख़ता ख़ता न लगे।
किसी तरह वो मुझे लायक़े सज़ा न लगे॥

रहो जो दूर तो भारी हो एक-एक लम्हा।
क़रीब आओ तो कुछ वक़्त का पता न लगे॥

मकाँ के सब दरो-दीवार जाँ के दुश्मन हैं।
ज़बाँ खुले भी तो कुछ यों, इन्हें हवा न लगे॥

वो यों ही बात बनाये तो मान ले दुनिया।
मैं वाक़या भी सुनाऊँ तो वाक़या न लगे॥

वो मेरे साथ हो जिस वक़्त हैं यक़ीं मुझको।
खुदा भी आये अगर सामने खुदा न लगे॥

हवाएँ बर्फ़ सी आकर अगर चुभें जो कभी ।
अँगीठियों का दहकना किसे भला न लगे॥