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मैं तुम्हारी अर्चना / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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मैं तुम्हारी अर्चना का फूल हूँ।

1.
धूप वर्षा शीत में मैं हूँ पला,
साधना के कंटकों में हूँ खिला।
पंथ पर जो छोड़ तुम आये चरण
मैं उन्हीं की रज, उन्हीं की धूल हूँ॥

2.
ज्ञात मुझको है न क्यों, कैसे, यहाँ
आ गया मैं, और जाना है कहाँ?
किंतु जिसकी खोज में पागल बना
मैं उसी की याद, उसकी भूल हूँ॥

3.

तन दिया तुमने, तुम्हीं ने मन दिया;
और जीने के लिए जीवन दिया।
साँस की सरिता बहा जो तुम गये
मैं उसी की धार, उसका कूल हूँ॥

फरवरी, 1959