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मैं तुम्हारे द्वार उस दिन / धीरज श्रीवास्तव

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भावना की बेड़ियों ने,पाँव जकड़े
तब रुका था मैं तुम्हारे,द्वार उस दिन।


सोचता था मान दोगे
तुम मुझे सम्मान दोगे
छोड़ जग मैं पास आया
प्राण तक तुम पर लुटाया
किन्तु निष्ठुर मीत तुमने
बस हृदय मेरा दुखाया

अर्चना के फूल बासी हो गये सब
सह गया अपमान सारे,प्यार उस दिन।


बैठ कदमों में तुम्हारे
रात दिन मैंने गुजारे
हार श्रद्धा का पिरोया
प्रीति में खुद को डुबोया
मूर्ति बन तुम मौन बैठे
सिर्फ मेरा मन भिगोया

यातना से टूट ज्यों सँभले तपस्वी
पी गया यों अश्रु खारे,यार उस दिन।


क्या करें अब प्रार्थनायें
झूठ कैसे सच बनायें
टीस देती है दुहाई
मौत भी मुझको न आई
मैं पराजित ही रहा हूँ
जीत की तुमको बधाई

वेदना के संग फिर भी मुस्कुराये
मान किस्मत के सितारे,हार उस दिन।