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मैं दश्त-ए-शेर में यूँ राएगाँ तो होता रहा / राशिद जमाल

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मैं दश्त-ए-शेर में यूँ राएगाँ तो होता रहा
इसी बहाने मगर कुछ बयाँ तो होता रहा

कोई तअल्लुक़-ए-ख़ातिर तो था कहीं न कहीं
वो ख़ुश-गुमाँ न सही बद-गुमाँ तो होता रहा

उसे ख़बर ही नहीं कितने लोग राख हुए
वो अपने लहजे में आतिश-फ़िशाँ तो होता रहा

न एहतियाज के नाले न एहतिजाज की लय
बस एक हमहमा-ए-राएगाँ तो होता रहा

हम ऐसे ख़ाक-नशीनों की बात किस ने की
अगरचे तज़्करा-ए-कहकशाँ तो होता रहा

सुबुक-सरी के लिए तुम ने क्या किया ‘राशिद’
फ़लक से शिकवा-ए-बार-ए-गिराँ तो होता रहा