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मैं बजता हूँ ... / श्यामनन्दन किशोर

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मैं बजता हूँ किन्तु निकलती तुमसे है झंकार!
बीन बजाना भूल गया मैं,
जब से मन ही तार बन गया।
छोड़ी तट की आशा, जब से
जीवन ही मझधार बन गया।

मैं गाता हूँ, किन्तु गीत के तुम केवल आधार!

नित मजार पर गगन दिवस के,
देता अगणित कुसुम चढ़ा रे!
पर रजनी-रानी के बनते
शशि, बिन्दी, ये हार सितारे!

मैं सजता हूँ, किन्तु देखता जग तुम में शृंगार!

डगमग पग ये, थका बटोही,
पंथ अश्रु-बूँदों से पंकिल!
मिलन तुम्हारा ही तो मेरे
एक मात्र जीवन की मंजिल!

मैं खेता हूँ नाव, मगर तुम हो मेरा उस पार!

(5.5.54)