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मैं यायावर गुन्जन हूँ / शब्द के संचरण में / रामस्वरूप 'सिन्दूर'

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जैसे-जैसे दृगबन्ध खुले,
मटमैले सपने रंग धुले,
कोई सुरंग मुझ को मधुवन में छोड़ गयी!
हीरक हथकड़ियाँ, स्वर्ण बेड़ियाँ तोड़ गयी!

मैं बन्दी-राजकुँअर की नियति जी रहा था
पर, कोई भी कल्पना मूर्त हो जाती थी,
तृप्ति के कमल खिलते थे राजसरोवर में
मुक्ति की कामना फिर भी बहुत सताती थी,
खंडित सुरंग, मुझको फिर मुझसे जोड़ गयी!
हीरक हथकड़ियाँ, स्वर्ण बेड़ियाँ तोड़ गयी!

दंशित-तन का विष पिया एक निर्झरणी ने
श्वास का कलुष बह गया तरंगित गन्धों में,
जीती-मरती माटी का काया-कल्प हुआ
सीमान्त सृष्टि सिमटी मेरे भुजबंधों में,
दुर्बल सुरंग, काल की कलाई मोड़ गयी!
हीरक हथकड़ियाँ स्वर्ण बेड़ियाँ तोड़ गयी!

मैं यायावर गुन्जन हूँ पुष्पक घाटी का
मैं महाप्रलय में भी अक्षय लय गाऊँगा,
डूबेंगे जब हिमसृंग अतल जलप्लावन में
शब्द के कंठ में बैठ नाद हो जाऊँगा,
सर्पिल सुरंग, अंजलि में अमृत निचोड़ गयी!
हीरक हथकड़ियाँ, स्वर्ण बेड़ियाँ तोड़ गयी!