भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं सबला हूँ, नहीं अबला रही हूँ / भाऊराव महंत

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं सबला हूँ, नहीं अबला रही हूँ।
ज़माने को हुनर दिखला रही हूँ।

मुझे कमज़ोर समझो अब न तुम भी,
मैं दुनिया को यही जतला रही हूँ।

सफ़र में साथ मेरे चल रहे जो,
सदा लड़ना उन्हें सिखला रही हूँ।

लगें आरोप मुझ पर बेसबब ही,
पुराने ख़्याल को झुठला रही हूँ।

है चर्चा महफ़िलों अख़बार में हर,
सदा बनकर मैं ही मसला रही हूँ।

मुझे कब मेरे सारे हक़ मिले हैं,
इसी के वास्ते झुँझला रही हूँ।

नहीं कोई समझता दर्द मेरे,
मैं अपने आप को सहला रही हूँ।

ज़माने ने मुझे लूटा हमेशा,
ये सच है, बात जो बतला रही हूँ।

ग़ज़ल जो भी कही हैं शायरों ने,
उसी का मैं बनी मतला रही हूँ।