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मैं समर्पित बीज-सा / बुद्धिनाथ मिश्र

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मैं वहीं हूँ जिस जगह पहले कभी था

लोग कोसों दूर आगे बढ़ गए हैं ।


ज़िन्दगी यह--एक लड़की साँवली-सी

पाँव में जिसने दिया है बांध पत्थर

दौड़ पाया मैं कहाँ उन की तरह ही

राजधानी से जुड़ी पगडंडियों पर


मैं समर्पित-बीज सा धरती गड़ा हूँ

लोग संसद के कंगूरे चढ़ गए हैं ।


तम्बुओं में बँट रहे रंगीन परचम

सत्य गूंगा हो गया है इस सदी में

धान पांकिल-खेत जिनको रोपना था

बढ़ गए वे हाथ धो बहती नदी में


मैं खुला डांगर, सुलभ सबके लिए हूँ

लोग अपनी व्यस्तता में मढ़ गए हैं ।


खो गई नदियाँ सभी अंधे कुएँ में

सिर्फ़ नंगे पेड़ हैं लू के झँवाए

ढिबरियों से टूटने वाला अंधेरा

गाँव भर की रोशनी पी, मुस्कराए


शाल-वन को पाट, जंगल बेहया के

आदतन मुझ पर तबर्रा पढ़ गए हैं ।


(रचनाकाल:अप्रैल 1989)