भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं हँसा / लीलाधर मंडलोई

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बांध सकते हैं पांव इस तरह कि निकल न पाऊं घर से बाहर
इतना डर आपको मेरी खिड़की तक में तैनात बंदूक की नाल
सपनों में पीछा करतीं जघन्‍य इरादों से लैस टुकडियां
अखबार पर काबिज आपके सिपहसालार

एक उम्‍दा खबर तक डेस्‍क से काफूर
बीड़ी-तम्‍बाखू के बहाने निकलना दूभर
चाय की तलब से सूखता हलक
दुःख-सुख के दोस्‍त नजरबंद

सब कुछ बंद के जनतंत्र में
पकने को हैं लेकिन धान की बालियां
अमरूद पर तोते की पहली चोंच से उभरती लाली में
खोलता है जीवन का असमाप्‍त गीत बंद पलक

जिसे गुनगुनाने लगी मेरी बेटी
वह गाएगी कुछ ऐसा कि रोक नहीं पांयेंगे आप
शुक्र है मालिक! उसके कंठ के लिए ईजाद नहीं हुआ कोई कर्फ्यू

धूप है कि खिली जाती है मेरे रोम-रोम में, मैं हंसा