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मौगियाह / दीपा मिश्रा

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"दुर जी
मौगियाह नहितन!"
मात्र एक वाक्य
स्त्री स्वाभिमानकेँ
आहत करबाक लेल
पर्याप्त अछि
शिक्षित समाजसँ
मात्र आग्रह जे
ई शब्दकेँ
यदि स्वीकारी आब
त' स्वाभिमानक संग
आर कही
'हँ हम मौगियाह छी'
कियाक त' मौगी होयब
कोनो गारि नै
स्त्रियोचित गुणसँ
अहाँ पूर्ण छी
अकर्मण्यता लेल
नहि जानि
ई शब्द कियाक बनल?
सबसँ अधिक
कर्मठ के अछि
ई त' सबकेँ बुझल
पीठक पाछाँ नहि
सामने आबिकेँ
यदि एकोटा पुरुष
ई स्वीकार कऽ ली
हम बुझब
हमर समाज
सही दिशामे
अग्रसर अछि!