भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मौन-मिटा / केदारनाथ अग्रवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मौन-मिटा
वाक्-चपल
लोग हुए,
भीतर से बोले
जीवन की बानी।

सम्पुट पंखुरियों का
महादेश
अन्ततः खुला
गमक उठी
आत्म-गंध
रंग-रूप छलका।

रचनाकाल: ०२-०३-१९७७