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यज्ञ / शर्मिष्ठा पाण्डेय

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काया दहन करती मैं, आत्मा को होम दूं
मोह, तृष्णा समिधा करूँ, शुद्ध वायु व्योम दूँ
स्वाहा कर रही समस्त लोभ, काम क्रोध, अहं
कुण्डलिनी कवच धरूँ, मस्तिष्क, मन ॐ दूं
 राख मैं बिखेरती चली धरा के वक्ष पर
तृप्त धान्य, पुष्पलता पुलकित रोम रोम दूं
ताप, उर्जा है प्रचंड, सृष्टि भी सिहर उठे
विष सदृश अज्ञानता, आत्म-ज्ञान सोम दूं
जन्म-मृत्यु, कर्म-मर्म, शब्द-अर्थ भेद शपा
आत्म को परमात्म करती, वर्ण को विलोम दूं
पाषाणी प्रतीक्षा से कर मुक्त मुझे मोक्ष दे
दीप्तिमान अनल में दहकने को मोम दूं