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ययाति की व्याकुलता ही सब पाते हैं / संजय तिवारी

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तुमने कभी ययाति को जाना?
अपने ही इतिहास में
कुछ ख़ास पहचाना?
नहुष भी तो इक्ष्वाकु कुल के ही
थे राजकुमार
छह पुत्रो के पिता
बड़े प्रतापी और सुकुमार
उन्ही में थे
याति? ययाति?सयाति?
अयाति?वियाति और कृति
सभी की थी अद्भुत स्वीकृति
शुक्राचार्य की बेटी थी देवयानी
ययाति की पटरानी
शर्मिष्ठा थी उसकी नौकरानी
वह
ययाति को भा गयी
शुक्राचार्य के एक शाप से
ययाति के यौवन की तृप्ति खा गयी
अपने ही पुत्र का यौवन ले
ययाति ने भी पाया था ज्ञान
तुमने जीवन के दुखो से
भाग कर जो भी पाया
ययाति ने वासना से घृणा के बाद
उसे अपनाया और यह गाया -
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः
तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः
कालो न यातो वयमेव याताः
तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ॥
अर्थात?
हमने भोग नहीं भुगते,
बल्कि भोगों ने ही हमें भुगता है;
हमने तप नहीं किया,
बल्कि हम स्वयं ही तप्त हो गये हैं;
काल समाप्त नहीं हुआ
 हम ही समाप्त हो गये;
तृष्णा जीर्ण नहीं हुई,
पर हम ही जीर्ण हुए है।
जानते हो गौतम?
इस ययाति से ही उपज कर
कपिलवस्तु में तुम आये
लेकिन अपना ही इतिहास
क्यों नहीं जान पाए?
यदु? तुर्वसु?द्रुहु?पुरु और
अनु जैसे पुत्री के साथ
माधवी जैसी पुत्री का हाथ
ययाति का कुल
या कि यह जगत व्याकुल
हम सब वही से आते हैं
ययाति की व्याकुलता ही
सब पाते हैं
वह भोग से ऊबे थे
तुम तो रोग में डूबे थे
देखो?
मैं न तो शर्मिष्ठा हूँ
ना ही देवयानी
नहीं करनी मुझे कोई नादानी
पर मैं भी तो इसी धारिणी की लहू हूँ
महाराज शुद्दोधन की बहू हूँ
बहुत कुछ जानती हूँ
पुरखो को बहुत मानती हूँ
तुम्हारी अर्द्धांग हूँ
इसीलिए सब तोल रही हूँ
हां? बुद्ध
मैं यशोधरा ही बोल रही हूँ।