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यहां रंग बहहुत फीका है / कौशल किशोर

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जिन घरों की चिमनियों का शोर
घुटा-घुटा रहता है
वहाँ कौन-सा गीत गाया जाता है
वहाँ कौन-सा साज बजता है
वहाँ संगीत की कौन-सी धुन फूटती है?
 
केंचुल निकाल कर बाहर आओ
फिर तुम इस मौसम की नग्नता
साफ-साफ देख सकते हो-
व्यवस्था कितनी क्रूरता के साथ
आदमी और परिवार में दरारें पैदा कर रहा है।

यहाँ रोटी का रंग वही नहीं है
यहाँ रोटी का स्वाद वही नहीं है
यहाँ रोटी की शक्ल वही नहीं है
यहाँ रोटी की गन्ध वही नहीं है

यहाँ रोटी
छीनाझपटी और हाथापाई के बीच उछलती है
कभी इधर से, कभी उधर से
कई-कई आंखों का असहय दबाव
उसे भरपूर खिलने नहीं देता
यहाँ मौसम और अंगीठी का रंग
बहुत फीका है।

आज पहली तारीख है
वे कारखाने से आ रहे हैं
तेल और ग्रीस से तर-ब-तर
पसीने में चुह-चुहाया सारा बदन
महीने भर की कड़की पॅाकिट में लिए
वे घर में चुपके से दाखिल होते हैं
गली की ओर खुलने वाला दरवाजा
उनकी मदद करता है
उन्हें चारो तरफ़ से घेरे है
भय और डर
हर दस्तक पर उनकी घबड़ाहट
और सांसे तेज हो जाती है।

खुद को मोर्चे पर बहाल करती
अब उनकी पत्नी उठेगी
अपने बेपर्द हो रहे शरीर को
तार-तार साड़ी से ढ़कती
कई तरह के बहानों की राजनीति से
अपने शब्दों को नहलायेगी।

इस इलाके में रोशनी को
स्वतंत्र विचरण की इजाज़त नहीं
ये तमाम लोग
ऐसे ही अन्धकूप कमरों में रहते हैं
ऐसे ही ज़िन्दगी बसर करते हैं
दुनिया में आंधी चल रही होती है
ये बेख़बर सोते हैं
पर मालिक-मकान और तकादा करने वालों की
धौंस-धमकी के बीच
इन्हें अपनी तरह के लोगों से
बेशुमार प्यार हो जाता है।