भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यह कैसी भ्रान्ति मेरी / रुद्र मुहम्मद शहीदुल्लाह / सुलोचना वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह कैसी भ्रान्ति मेरी !
आती हो तो लगता है दूर हो गई हो, बहुत दूर,
दूरत्व की परिधि क्रमशः बढ़ा जा रहा है आकाश।
आती हो तो अलग तरह की लगती है आबोहवा, प्रकृति,
अन्य भूगोल, विषुवत रेखा सब अन्य अर्थ-वाहक
तुम आती हो तो लगता है आकाश में है जल का घ्राण।

हाथ रखती हो तो लगता है स्पर्शहीन करतल रखा है बालों में,
स्नेह-पलातक बेहद कठोर उँगलियाँ।
देखती हो तो लगता है देख रही हो विपरीत आँखों को,
लौट रहा है समर्पण नंगे पैरों से एकाकी विषाद — क्लान्त होकर
करुण छाया की तरह छाया से प्रतिछाया में।
आती हो तो लगता है तुम कभी आ ही नहीं पाईं ...

कुशल क्षेम पूछती हो तो लगता है तुम नहीं आईं
पास बैठती हो, तो भी लगता है तुम नहीं आईं।
दस्तक सुनकर लगता है कि तुम आई हो,
दरवाज़ा खोलते ही लगता है तुम नहीं आईं।
आओगी जानकर समझता हूँ अग्रिम विपदवार्ता,
आबोहवा संकेत, आठ, नौ, अवसाद, उत्तर, पश्चिम
आती हो तो लगता है तुम कभी आ ही नहीं पाईं।

चली जाती हो तो लगता है तुम आई थीं,

चली जाती हो तो लगता है तुम हो पूरी पृथ्वी पर।

मूल बांग्ला से सुलोचना वर्मा द्वारा अनूदित