भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यातनाएँ बोलतीं हैं / कल्पना पंत

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 हे ययाति !
दिनों, हफ्तों, महिनों, वर्षों, सदियों, युग-युगान्तरों
तुम्हारा वर्धन
मासूम कन्दराओं
प्रासादों, अट्टालिकाओं, बस्तियों और झुग्गियों तक

न जाने कितने-कितने पुरुओं को
तुम्हारी लालसा ठगती रही है
दूर करते जीवनास्वाद से

हे ययाति !
मेरा प्रश्न तुम ! तुम ! सुनो
तुम्हारी कामनाओं का रथ अप्रहित
काल को पददलित करते
क्यों संक्रमित होता रहा है ?

आज हम हैं
यातनाओं के चिह्न अपने
वक्ष पर ले भोगते
रौरव नरक को
रात की विकरालता में
अभिशप्त परछाइयां विचरतीं
खण्डित स्वप्नों की कोख में पल रहा विद्रोह
न जाने कब जगेगा
कब व्यथित एकलव्य
लहू को पोंछ
क्रुद्ध हो
प्रतिशोध लेगा

दाराशिकोह
उठेगा
आन्धियाँ अँगड़ाइयाँ ले
जल उठेंगीं
दिशाओं के धूम से मरुधर उठेंगे
जाग उठेगा वह अकिंचन
मृत्यु सम यातनाओं का
प्रतिद्रोह लेकर
तुम्हारी अप्रतिहत कामनाओं
को दलेगा

काल की परछाइयों के बीच…
नव सूरज उगेगा !

यातनाएं बोलतीं हैं ।